Lahore 1947: असगर वजाहत के मशहूर नाटक ‘जिस लाहौर नई देख्या ओ जमायै नई’ पर आमिर खान की फिल्म ‘लाहौर 1947’ रिलीज होने की तैयारी है।
Aamir-Sunny Deol and Rajkumar Santoshi’s film ‘Lahore 1947’
इस फिल्म का निर्देशन प्रिंस संतोषी ने किया है। इसमें मुख्य भूमिका सनी देवी, शबाना आजमी, प्रीति जिंटा, अली फजल, करण देव और अभिमन्यु शेखर सिंह आदि ने निभाई है।
पहले यह फिल्म 26 जनवरी 2025 को भारत में रिलीज हो सकती थी अब इस फरवरी 2025 में रिलीज होने की संभावना है।
प्रिंस संतोषी करीब बीस साल से इस फिल्म को बनाना चाहते थे और उन्होंने इसके लेखक असगर वजाहत से दो बार इसके फिल्मांकन का अधिकार पूछा था।
सनी डायरेक्टर की फिल्म ‘गदर 2’ हिट होने के कुछ महीने बाद ही इस फिल्म की अनाउंसमेंट हो गई थी। इसके माध्यम से लंबे समय के बाद प्रिंस संतोषी (समुद्र तट पर) के साथ और पहली बार आमिर खान (दाएं) के साथ काम कर रहे हैं।
इससे पहले ‘गांधी गोडसे – एक युद्ध’ पर विवाद हुआ था
इसी दौरान संतोषी ने असगर वजाहत के दूसरे नाटक ‘गोडसे @गांधी डॉट कॉम’ पर पिछले साल ‘गांधी गोडसे – एक युद्ध’ फिल्म बनाई और उसका चित्रण किया। इस फिल्म को लेकर साउथपंथी और दोनों खेमों में आदर्श निरपेक्षता पर विवाद हुआ था।
फिल्म में अलेक्जेंडर मिर्ज़ा बने हैं सनी देवता
लाहौर में 1947 में बूढ़ी मां की भूमिका शबाना आजमी ने निभाई थी, जबकि सनी टेलर अलेक्जेंडर मिर्जा बने थे और प्रीति जिंटा उनकी पत्नी और करण के बेटे थे।
अब 2009 में मैंने जिस नाटक के बारे में विस्तार से चर्चा की, वह अंग्रेजी में एक किताब थी ‘जिस लाहौर… के दो दशक’ (वाणी प्रकाशन)
अविश्वासी और निर्देशित को मिली ख़तरनाक
दृश्य 1: मुंबई के बाहरी इलाके में स्थित ‘रंग सारदा’ ऑडिटोरियम में असगर वजाहत के नाटक ‘जिस लाहौर नई देख्या ओ जम्याई नई’ का मराठी संस्करण का शो चल रहा था। वामन सेंटरे द्वारा निर्देशित और मराठी रूपांतरण शफात खान ने किया था। यह शो हाउसफुल था।
मध्य संस्करण में नेपथ्य में अचानक कुछ क्रिसमस हुआ। जब शफात खान ने वहां देखा तो उन्होंने खुद को एक स्थानीय नेता के रूप में प्रचारित किया और एक आदमी को निर्देशित करने वाले को धमकी दी कि इस नाटक को बंद करो अन्यथा बहुत बुरा होगा। वह आदमी के बीच में ही नाटक छोड़ कर चला गया। नाटक तो बंद नहीं हुआ।
इस नाटक का मंचन देश और विदेश में बेहद सफल रहा है।
एक स्पेशलिस्ट ने कहा- ‘यह ड्रामा बंद नहीं होना चाहिए’
अंतिम प्रदर्शन के बाद एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह आदमी नेपथ्य में फिर आया। उसने जेब में हाथ डाला। उसकी आँखों में फूल थे. उसने जब जेब से हाथ बाहर निकाला तो उसके हाथों में सौ-सौ के सिक्कों की गड्डियाँ थीं। उन्होंने उसे सलाह देते हुए कहा- ‘मुझे माफ कर दो। उस दिन मैंने आधा ही ड्रामा देखा था। आज मैंने पूरा ड्रामा देखा। यह नाटक बंद नहीं होना चाहिए और पैसे की जरूरत है तो मुझे फोन करेंगा।’
पाकिस्तान में ट्रेश लोगो ने नाटक देखा
दृश्य -2 पाकिस्तान के कराची शहर का है। यहां पुलिस कमिश्नर के यहां स्टेक अहमद ने इस नाटक का अरबी संस्करण जमा पानी और इसके मंचन की अनुमति दी है।
प्रशासन ने उन्हें कोई जानकारी नहीं दी, हालांकि जर्मन सूचना केंद्र ‘गोएथे सेंटर’ में कई हाउसफुल शो हुए। लोगों को जब नीचे जगह नहीं मिली तो उन्होंने पेड़ों की सजावट पर मौजूद नाटक देखा।
विरोध के बाद नेशनल टूर रद्द कर दिया गया
दृश्य -3 जनवरी 2009 का है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बारहवें भारत रंग महोत्सव में अंत तक अनिश्चितता बनी रही कि कराची की सीमा किरामानी के निर्देशन में होने वाला यह नाटक नहीं होगा। इसका कारण यह था कि कुछ हिंदू कट्टरपंथियों ने खतरनाक दी थी।
किसी तरह पुलिस के भारी-भरकम ढांचे के बीच दिल्ली में यह नाटक हुआ तो नाट्य दल का लखनऊ दौरा रद्द कर दिया गया। सीमा किरामानी मोहे अपने दल के साथ कराची लौट आई।
ऑस्ट्रेलियन महिला इतनी रोई का ऑपरेशन हुआ
दृश्य – 4 यह है कि सिडनी सिटी में इस नाटक का हाउसफुल शो चल रहा था। दर्शकों में अगले दिन एक ऐसी महिला की आंखों का ऑपरेशन हुआ, जिसकी आंखों के फूल सूख गए थे।
नाटक देखने के दौरान वह इतनी रोई कि उसकी आंखें फिर से उड़ गईं। अगले दिन डॉक्टर ने कहा कि अब उसे ऑपरेशन की जरूरत नहीं है।
यह नाटक भारत-पाक का एक सा जुड़ाव पर है
इस नाटक में आखिर ऐसा क्या है कि हिंदू और मुस्लिम का विरोध एक हो जाता है। भारत और पाकिस्तान की सरकार भी एक सा बनी हुई हैं।
यहां यह याद रखना जरूरी है कि यह नाटक उसी दौर में तैयार हुआ था जब भाजपा नेता लालकृष्ण ऑर्केस्ट्रा की रथ यात्रा कर रहे थे। बाबरी मस्जिद गिरी हुई थी। मुंबई और देश के कई हिस्सों में भयानक दंगे हो चुके थे।
घृणा, अविश्वास और हिंसा के राक्षसी लोकतंत्र में यह नाटक मानवीय प्रेम और करुणा की बात करता है, धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल के प्रति आगाह करता है और राष्ट्र, क्षेत्र, धर्म, नस्ल की सीमाओं से परे शांति और सह-साझेदारी का वैश्विक दृष्टिकोण सामने रखता है। ।।
35 साल में कई समुद्र तट पर मंचन हुआ
‘जिस लाहौर नई देख्या ओ जम्याई नई’- संभवतः हिंदी का अकेला ऐसा नाटक है जो पिछले पैंतीस वर्षों से हिंदी के साथ-साथ भारतीय विभिन्न समुद्रों में लगातार हो रहा है।
साथ ही वाशिंगटन, सिडनी, कराची, अबू धाबी दुबई आदि विश्व के कई शहरों में भी हो रहा है। इस नाटक के साथ सैकॉन्डर्स की कहानियां जुड़ी हुई हैं जिनमें से कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया है।
इस साल इस नाटक को लिखने के लिए पूरे साल पूरे हो चुके हैं। इसके दो दशक पूरे होने वाले अवसर (सितंबर 2009) को एक अंतर्राष्ट्रीय उत्सव के रूप में मनाया जाता है। किसी हिंदी नाटक की संभावना यह पहला अंतर्राष्ट्रीय उत्सव था।
विशेष रूप से यह भी है कि यह सब कुछ बाईटबाथ के प्रमुख प्रेमियों ने अपनी निजी बात के लिए बलपूर्वक काम किया। भारत या किसी भी देश को सरकारी अनुदान शामिल नहीं था। इस नाटक के बीसवें वर्ष की वैश्विक यात्रा पर ध्वनि प्रकाशन इस लेखक के संपादन में एक विशेष सचित्र ग्रंथ छपा है- ‘दो दशक जिस लाहौर नई देख्या…।’
नाटक के लेखक असगर वजाहत।
यह नाटक विभाजन के दौर पर आधारित है
अब इस नाटक के इतिहास पर जरा ध्यान दें। उर्दू पत्रकार संतोष कुमार ने सबसे पहले असगर वजाहत को लाहौर की एक घटना बताई थी। उनके साधु छोटे भाई कृष्ण कुमार गोर्टू 1947 के भारत-पाक डिविजन के अंतिम संस्कार में मारे गए थे। यह नाटक एनीज़नी को समर्पित है।
असल में यह हत्या उन हजारों निर्दोष लोगों की हत्याओं का प्रतीक है जो सांप्रदायिक उन्माद और हिंसा का शिकार थे। विभाजन के काफी बाद संतोष कुमार लाहौर चले गए जहां उनके भाई की हत्या हुई थी। फिर वहां से वे सिनेमाघर दिल्ली आ बसे थे। वापसी के बाद उन्होंने वहां एक लंबी यात्रा की, जिसमें उन्होंने उर्दू में ‘लाहौर नामा’ शीर्षक से लिखा। वे एक हिंदू बुज़ुर्ग का ज़िक्र कर रहे थे जो डिविज़न के बाद अकेले लाहौर में रह गया था। वह पंजाबी महिला का बेटा और उसका पूरा परिवार लापता था। बुढ़िया को यकीन था कि एक दिन वे वापस जरूर लौटेंगे।
तीसरी से कथासूत्र के साथ बाकी बातों की कल्पना करते हुए नाटक का निर्माण किया गया।
नाटक के पहले पाठ का कार्यक्रम रद्द करने के लिए असगर वजाहत ने जब 1989 में इस नाटक को लिखा तो इसके पाठ में कुछ नाट्य-निर्देशकों को आमंत्रित किया गया। किसी भी निर्देशित पाठ में कोई पहुंच और कार्यक्रम रद्द करना शामिल नहीं है। इसका पहला पाठ दिल्ली के श्रीराम केंद्र रंगमंडल के कलाकारों के बीच हुआ।
हबीब तनवीर ने नाटक का पहला मंचन किया
असगर वजाहत हिंदी बोल्ट हंगरी के बुडापेस्ट शहर चले गए। अचानक उनकी पत्नी का फोन आया कि हबीब तनवीर इस नाटक को श्रीराम सेंटर रंगमंडल के साथ करना चाहते हैं। अंततः हबीब साहब के निर्देशन में इस नाटक का पहला प्रदर्शन 22 सितंबर 1990 को संभव हो सका। वह इतने बड़े पैमाने पर मंचन करते थे कि देखते-ही-देखते नाटक की शोहरत अमेरिका में रिलीज हुई थी। बाद में हबीब तनवीर ने इसे अपने छत्तीसगढ़ी कलाकारों के साथ अपनी संस्था ‘नया थिएटर’ के लिए तैयार किया जिसके कई प्रदर्शन हाल तक होते रहे।
पाकिस्तान में दर्शकों का एक बड़ा समूह है जो इस नाटक को पसंद करता है। वहां सारे शो हाउसफुल रहे हैं। अमेरिका के प्रवासी अंग्रेजी लेखक और वाइस ऑफ अमेरिका के कलाकार रामोश अग्निहोत्री ने 1994 में वाशिंगटन डी.सी. में इस नाटक का प्रदर्शन किया था। इसमें भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रवासी कलाकारों ने काम किया था। इसके कई सफल लोगों ने वहां दूसरे शहरों में भी प्रदर्शन किया।
भारत में हबीब तनवीर के बाद 1998 में मुंबई में अपनी संस्था ‘अंक’ के कलाकारों के साथ वरिष्ठ रंगकर्मी डायना ठाकुर ने इसका मंचन किया। इसमें नासिर काजमी की जगह निदा फाजली की नज्में और गुजरात के पर्यटन स्थल शामिल हैं। नासिर काजमी की भूमिका में स्वयंसिद्ध राजनेता ठाकुर फोटोग्राफर थे। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी प्रीता मथुरा इस नाटक के शो में लगातार काम कर रही हैं।
कई और सागर में हुआ मंचन
यहां नाटक के कन्नड़ संस्करण की बात करना जरूरी है, शुरुआत सुप्रसिद्ध रंगकर्मी बी.वी.कारंत ने की थी। यह काम बाद में डी.एन.श्रीनाक ने पूरा किया। इसे ‘रावी किनारे’ के नाम से छापा गया। इसके निदेशक रमेश एस.आर. ने किया। इस नाटक का गुजराती में भी अनुवाद और प्रदर्शन हो रहा है। पंजाबी में इसके कई अनुवाद हुए। अमृतसर के केवल धालीवाल और लोनी के त्रिलोचन सिंह ने यहां बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किया। पंजाब में इसका अलौकिक स्वागत हुआ।
कई और लोगों ने फिल्म बनाने की कोशिश की
इस नाटक में कई फिल्मी कलाकारों ने भी लगातार काम किया है। सबसे पहले इस फिल्म के निर्माण का अधिकार गोविंद निहलानी ने खरीदा था। जब वे पांच साल तक फिल्म नहीं बना पाए तो असगर वजाहत ने उन्हें कानूनी नोटिस भेजा।
अब प्रिंस संतोषी ने आमिर खान के साथ मिलकर इस ड्रामा पर करीब 100 करोड़ रुपये की लागत से ‘लाहौर 1947’ नाम से अपनी फिल्म पूरी की है, जो अगले साल फरवरी में रिलीज होगी।
वे सबसे पहले संजय दत्त को मुख्य भूमिका में लेना चाहते थे। उसी दौरान संजय दत्त एक प्रोटोटाइप में जेल चले गए और फिल्म बंद कर दी। पिछले साल आई फिल्म ‘गदर 2’ के सुपरहिट होने के बाद अब इस फिल्म में प्रिंस संतोषी और आमिर खान ने लीड रोल निभाया है।
लेखक: अजित राय